Monday, August 31, 2009

ये दुनिया और हम, बहुत सारे सपने और मन में ट़ेर सारी उमंगें। ये उमंगों और सपनों का दौर ऐसा चलता है कि जिंदगी के बाद भी जारी रहता है। मजे की बात तो यह है कि सारी जिंदगी भी इन सभी को पूरा करने में लग जाती है और उससे भी ज्यादा मजे की बात यह है कि हमें पता भी नहीं, पते की बात तो छोड़िए जनाब, भनक भी तो नहीं पड़ती है।

ज्यादा ध्यान से देखने पर तो यह सब नुक्कड़ की दुकान पर रखी ए‌क इमरती जैसा ही लगता है। देखते ही जीभ से पानी टपकना शुरू, गोल गोल, खौलते हुए तेल में अपने आप को जलाकर दूर तक माहौल को खुशबू से सराबोर कर देना। उसका रंग, आकार और स्वाद, सब कुछ ही तो ऐसा कि बस

“उम्‍म्‍म्‍म्‍, उठालो और खालो”

लेकिन मेरा मुकद्दर

कि कभी इमरती तो कभी साधन नहीं

और कभी साधन तो इमरती नहीं

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