Saturday, December 20, 2008

मैं, मुझसे ‌‌मिलूं पर कैसे

नया जोश नई उमंग
डाल हाथों में हाथ
चले संग संग
दूर, बहुत दूर
जहां साया भी सा‌थ न हो
माया भी साथ न हो
काया की सुध न हो
और मन में आवाज न हो

बहुत दिन हुए
अपने से मिले
वो सारे शिकवे गिले
जो अपने से ही है मुझको
उनका हिसाब जो करना है
सारी सीमाओं से परे
बंधनों को तोड़कर
रिश्ते नातों को छोड़कर

बिना किसी ताने बाने के
बिना किसी रूकावट के
बिना किसी की आहट के
केवल मैं ही मैं
और कोई नहीं
और कुछ भी तो नहीं
सब कुछ बस “मैं”

ऐसा करने का मन करता है
अपने को छूने का मन करता है
ताकि, एहसास रहे मैं जिंदा हूं
लेकिन एक डर है मुझको
वो मंजर,
मुझको तोड़ न दे
मैं, मेरा दामन छोड़ न दूं
नफरत का ऐसा गुब्बार
दूसरों के लिए भी नहीं है
मेरे मन में
फिर जाने क्यों मैं अपने से
नफरत करता हूं
और मिलने से कतराता हूं।

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