Tuesday, December 9, 2008

बातें हैं,

गलियों पे चौबारों पे
घर के आंगन द्वारों पे
बात नई और पुरानी
सुनकर होती है हैरानी

कुछ ऐसी जो ज्ञान बढ़ाएं
कुछ ऐसी जो मान बढ़ाएं
कुछ ऐसी जो चढ़ चढ़ आएं
कुछ ऐसी जो सुनी न जाएं

यूं ही चलती रहती है
कुछ न कुछ तो कहती है
सारी बात हमारे ऊपर
किस संग क्या क्या करना है?

घाव नए देने है या
पुरानों को ही भरना है
खुशी और मायूसी
किस संग किसका साथ

सब कुछ अपने ‌हाथ
क्योंकि
बातें है
बातों का क्या?

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