Sunday, August 8, 2010

मेरे अंदर एक बंदर

अंदर और मेरे अंदर एक बंदर सा नाचता है। कभी इस दीवार पर तो कभी दूसरी पर, पता ही नहीं चलता की ये चाहता क्‍या है? कई बार पता भी करना चाहा तब भी कुछ हाथ नहीं लग पाता है। समझ में नहीं आता है कुछ भी और जब भी कुछ समझने की कोशिश की तो सिवाय उलझनों के कुछ भी तो नहीं पाया मैनें। जब भी एक दिशा में संगठित होकर सोचने की कोशिश करता हूं तो थोड़ी देर की बात और है परंतु ज्‍यादा देर तक कायम नहीं रह पाता हूं उस सोच पर। बहुत सोचने के बाद कभी कभी यह निष्‍कर्ष निकलता है कि सब कुछ उसी पर छोड़ दिया जाए जिसने यह सब दिया है परंतु फिर अगले ही पल लगता है कि यदि यह सब ही करना था तो हमारा विशालकाय शरीर और इसमें इतने सारे अस्‍त्र शस्‍त्र क्‍यों लगाए गए है?

बहरहाल सिवाय भटकाव के कुछ भी न तो दिखाई दे रहा है और न ही कुछ सूझ रहा है।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

बदंर की हरकतों को
बस देखिए...
कुछ सोचिए मत।
बदंर शांत हो जाएगा..
उछल कूद नही मचाएगा।